भारत में जाति व्यवस्थाजातिवाद भारत का एक ऐसा घटक बन गया है जो इसकी संरचना में बहुत गहराई में जा बसा है। भारतीय समाज में यह संरचना इतनी गहरी है कि आज जाति व्यक्ति के नाम, पहचान का प्रमुख हिस्सा हो गया है। जाति व्यवस्था के बारे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का कहना था कि भारत में हर छोटी से छोटी जाति अपने से नीचे वाली जाति खोज लेती है। अतः यह एक जटिल और व्यापक व्यवस्था है। इसका प्रभाव सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में भारतीय समाज पर पड़ता है।एक ओर यह लोगों को एक अलग पहचान का आधार प्रदान करता है तो दूसरी ओर यह लोगों के बीच दिवाल भी बनकर खड़ी हो गई है। आज यह देश की राजनीति का भी बहुत प्रमुख मुद्दा बनकर उभरा है।
जातिवाद का इतिहास
भारतीय समाज में जातिवाद की उत्पति कब हुई, ये बता पाना मुश्किल है. क्यूंकि आदिकाल में मानव छोटे-छोटे समूह बनाकर जीवनव्यापन करते थे. फिर इसी क्रम में ये समूह कब एक जाति में बदले उस समय का पता लगाना सम्भव नहीं है. लेकिन जातिवादिता की रूढ़ता कैसी जन्मी होगी ये जरुर समझा जा सकता है. देश पर जब बाहरी आक्रमण होने शुरू हुए तो अपने अस्तित्व को बचाने के प्रयास में जातिवादीता जटिल होती चली गई. इस तरह से जाति को कुछ नियमों से बाँधा जाने लगा जैसे रोटीबंदी, बेटीबंदी. ये “बंदी” प्रत्यय के साथ नाम इसलिए बने, क्यूंकि इन दोनों ही शब्दों में रोटी मतलब रोजगार और बेटी को मतलब बेटी के विवाह को एक सीमा का निर्धारण कर इसे बाँध दिया गया. रोटी-बंदी का अर्थ हैं कि अपना खाना और अपना रोजगार अपनी जाति के बाहर किसी से भी साझा नहीं करना. जबकि बेटीबंदी में बेटियों का विवाह जाति से बाहर करना निषिद्ध कर दिया गया. भारत में इस कारण बहुत से धर्म और धर्म में भी भीतर तक जाति और उप-जाति और इससे भी आगे तक वर्गीकरण हुआ है,लेकिन इसका औचित्य कहीं से भी तात्कालिक परिस्थतियों के लिए आवश्यक नही है
डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया के बाद कांशीराम का नाम अवश्य लिया जाना चाहिए। लेकिन उन्होंने भी वंचित समुदायों को एकजुट करने के लिए जातिगत अवधारणाओं का सहारा लिया तथा डीएस-4 का गठन किया। हालांकि यह जात से जमात की ओर बढ़ने की राजनीति थी। लेकिन इसका असर सकारात्मक नहीं रहा और कांशीराम को बहुजन समाज पार्टी का गठन करना पड़ा, जो आज केवल दलितों की पार्टी बनकर रह गयी है।ऐसे में जबकि भारत में जातिवाद को तोड़ने को लेकर कोई आंदोलन ही नहीं हुआ है और ना ही शासकों की तरफ से इसकी कोई ठोस पहल की गई है तो जातिवाद समाप्त कैसे होगा? वैसे भी जाति व्यवस्था का सीधा संबंध संसाधनों पर अधिकार से जुड़ा है। भारत में यह अधिकार 85 फीसदी जनता के पास एकदम न्यून है। ऐसे में वर्चस्व को बनाए रखने और वर्चस्व को तोड़ने के लिए संघर्ष तो चलेंगे ही। अब यदि कोई इसे समाप्त करना चाहे तो निश्चित तौर पर उसे सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों स्तरों पर करना होगा। ऐसा नहीं होगा कि मुट्ठी भर लोगों के पास 90 फीसदी संसाधन होगा और समाज के सारे लोग एक समान हो जाएंगे।
जातिवाद के विकास के कारण
. विवाह संबंधी प्रतिबंध जाति अन्तर्विवाही समूह है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जाति समूह मे से ही जीवन साथी का चुनाव करना पड़ता है। इस कारण व्यक्ति अपने जाति सदस्यों को आगे बढ़ाने के अवसर प्रदान करता है, ताकि वे नौकरी तथा अन्य सुविधायें प्राप्त कर सकें।
जातीय स्थिति को उच्च करने की इच्छा अपनी जाति की स्थिति को उच्च करने की इच्छा के कारण व्यक्ति अपने जाति के सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों मे आगे बढ़ाने का प्रयास करते है, चाहे उनमे योग्यता हो या न हो।6. वोट की राजनीति जातिवाद के विकास मे वोट की राजनीति भी जातिवाद के विकास का एक महत्वपूर्ण कारण है। प्रजातंत्र मे वोट का महत्व है। अतः चुनाव जीतने के लिये जाति का सहारा लिया जा रहा है। जिस क्षेत्र मे जिस जाति की बहुलता है, उस जाति के सदस्य को चुनाव मे टिकट आसानी से मिल जाता है। जातीय भावनाओं को उभारकर जो व्यक्ति चुनाव जीतता है, वह बाद मे अपनी जाति की उन्नति के बारे मे सोचता और कार्य करता है।
जातीय संगठनों का विकास जातीय संगठनों का विकास होना जातिवाद का एक प्रमुख कारण है। देश मे जातीय हितों की रक्षा एवं उनकी अभिवृद्धि, जातीय लोगों मे एकता कायम रखने तथा उनकी समस्याओं के समाधान एवं प्रगति को आसान बनाने के उद्देश्य से विशेष रूप से गत सदी के दौरान, देश के क्षेत्रीय, प्रान्तीय व राष्ट्रीय स्तरों पर अनेक जातीय संगठनों का निर्माण हुआ जैसे सर्व-ब्राह्मण परिषद्, क्षत्रिय महासभा, अग्रवाल समाज, माहेश्वरी समाज, कायस्थ सभा आदि।
जातिवाद के प्रभाव या दुष्प्रभाव या दुष्परिणाम
भारतीय समाज पर जातिवाद के दुष्प्रभाव अत्यधिक व्यापक, गंभीर और दूरगामी है। वस्तुतः जातिवाद एक सामाजिक जहर है जिसने भारतीय समाज को इस प्रकार विषाक्त कर दिया है कि उसका इलाज हो पाना कठिन हो गया है। यदि इस जहर को आम जनजीवन से शीघ्र निकाला नही गया तो भारतीय समाज के लिये अपने अस्तित्व को बचा पाना कठिन हो जायेगा। अतीत मे भारतीय समाज की अवनति व पतन के लिये जो भी कारक उत्तरदायी रहे है, उन सभी की संयुक्त भूमिका की तुलना मे अकेले जाति व्यवस्था की भूमिका अधिक उत्तरदायी रही है। आधुनिक युग मे जाति व्यवस्था किन्ही मायनों मे कमजोर हुई है तो किन्ही मायनो मे यह मजबूत भी हुई है। जातिवाद के रूप मे जाति व्यवस्था का जहर सामाजिक जीवन के प्रायः सभी भागों मे फैल गया है और धीरे-धीरे पूरे समाज को बिषाक्त करता जा रहा है।
1. जातिवाद से सामाजिक एकता का कमजोर होनाजातिवाद सामाजिक अलगाव की प्रवृत्ति का परिचायक है। जातिवाद के चलते व्यक्ति की निष्ठा अपनी जाति तक सीमित हो जाती है। वह जातीय हित को सामाजिक हित से श्रेष्ठ समझता है जिसकी वजह से वह उसकी पूर्ति मे जायज या नाजायज ढंग से लगा रहता है। इससे समाज मे सामुदायिक भावना का ह्रास होता है। सामुदायिक भावना के ह्रास से सामाजिक एकता कमजोर होती है। जातिवाद ने सामाजिक एकता के साथ राष्ट्रीय एकता को भी कमजोर किया है।2. जातिवाद से सामाजिक संगठन को क्षतिजातिवाद के चलते हिन्दू समाज अलग-अलग जाति समूहों मे बँट जाता है। जिसमे हर एक का अपना जीवन ढंग, आदर्श, आराध्य देव व आदर्श पुरुष होता है। दूसरें शब्दों मे, हर एक की अपनी उप संस्कृति होती है। परिणामस्वरूप, हिन्दू समाज मे सामूहिक जीवन पद्धति का लोप हो जाता है। अलग-अलग जातियों की जीवन पद्धति मे भिन्नता की वजह से हिन्दू समाज मे आपसी भाईचारे, सहयोग और संगठन का अभाव होता है। फलस्वरूप, हिन्दूओं मे असुरक्षा, अलगाव व एकाकीपन व्याप्त हो जाता है।3. अयोग्य व्यक्तियों का चयन जातिवाद के कारण निर्वाचन के समय व्यक्ति अपनी जाति के अयोग्य व्यक्तियों का निर्वाचन कर डालते है। इससे अयोग्य व्यक्तियों को सरकार मे पहुंचने का अवसर मिलता है तथा प्रशासकीय कार्यों मे बाधा पड़ती है।4. जातिवाद से भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन अयोग्य व्यक्ति जातिवाद के कारण निर्वाचित हो जाते है तथा प्रशासन मे भ्रष्टाचार फैलता है। घूसखोरी, कार्य मे विलंब, अनियमितताएं आदि सभी दुर्बलताएं जातिवाद के आधार पर निर्वाचित अथवा नियुक्त पदाधिकारियों की ही देन है।5. राष्ट्रीय एकता मे बाधक जातिवाद का एक दुष्प्रभाव राष्ट्रीय एकता मे बाधा पड़ना है। जातिवाद के कारण अनेक छोटे-छोटे उपजाति समूह संगठित हो जाते है। इससे व्यक्ति की सामुदायिक भावना अत्यंत संकुचित हो जाती है। यह केवल अपने समूह के हितों के बारे मे और सुख-सुविधाओं के बारे मे ही सोचता है। यह स्थिति राष्ट्रीय एकता मे बाधक है।6. गतिशीलता मे बाधक जातिवाद के कारण व्यक्ति स्थानीय बंधनों मे जकड़ जाता है। शिक्षा, अधिक धन प्राप्त करने, आदि के लिये बाहर जाना पड़ता है, लेकिन जातिवाद के बंधन उसे ऐसा करने से रोकते है। इस प्रकार गतिशीलता मे जातिवाद बाधक है।7. योग्य व्यक्तियों मे बेकारीजातिवाद के कारण अयोग्य व्यक्तियों का निर्वाचन हो जाता है, इससे समाज मे योग्य तथा कुशल व्यक्तियों को आगे बढ़ने का अवसर नही मिलता है। अतः योग्य व्यक्तियों मे बेकारी तथा असंतोष फैलता है।